शुक्रवार को मुंबई में आईबीएन-लोकमत के दफ्तर पर हमले के तुरंत बाद महारास्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाद ने सख्त कार्यवाही का आश्वासन दिया तो लगा लंबे अरसे से नपुंसकों जैसा ब्यवहार कर रही महारास्ट्र सरकार की गैरत जाग गयी है। लेकिन थोड़ी ही देर में जाँच के लिए कमेटी बनाने की बात कहकर मुख्यमंत्री ने बता दिया की उनके पैजामे के नीचे कुछ नहीं है। बहरहाल काबिले तारीफ हैं लोकमत के वे पत्रकार जिन्होंने ठाकरे के सात गुंडों को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया। देखें कि सामना के संपादक संजय राउत सिर्फ़ अपने दफ्तर में बैठकर ठाकरे के शत्रुओं को सबक सिखाने का बयान देते रहते हैं या फ़िर अपने पालतुओं की जमानत कराने थाने तक भी पहुँचते हैं। आईबीएन ७ - लोकमत को इस हमले से कोई नुकसान होने के बजाय फायदा ही हुआ है। मंदबुद्धि ठाकरे को भला क्या पता कि ऐसे हमलों से अब झोपड़पट्टी वाले भी नहीं घबराते। मीडिया वालों को तो उलटे फायदा ही होता है। इस हफ्ते की टैम रिपोर्ट आने दीजिये। पता चल जायगा कि शुक्रवार की शाम आईबीएन-लोकमत की टीआरपी कितनी बढ़ी।
कुछ दिन पहले ही राज ठाकरे के विधायकों ने विधानसभा में अबू आजमी से हाथापाई की थी। आजमी को भी इससे फायदा ही हुआ था। लेकिन सवाल उठता है कि महारास्ट्र की राजनीती में कभी गंभीरता से नहीं लिए गये चाचा-भतीजा अचानक पागल क्यों हो गये हैं। 'मातुश्री' नाम के एक मकान में जिन्द्गगी के आखिरी पड़ाव पर आराम से दिन गुजार रहे बाल ठाकरे को रिटायरमेंट के बाद फ़िर से काम पर लौटना पड़ा है। जाहिर है बाल ठाकरे को समझ आ गया है कि शिवसेना की दुकान बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपना, उनकी गलती थी। नालायक उद्धव ने दुकान को बंदी के कगार पर पहुँचा दिया है। शिवसेना जैसी पुरानी दुकान से अच्छी तो राज ठाकरे की नई दुकान एम्एनएस चल पड़ी है। बेचारे बाल ठाकरे को बुढौती में दुकान पर बैठना पड़ रहा है। बहुत छोटी उमर से कम-धंधे में लग गये बाल ठाकरे को शायद पढ़ने का ज्यादा मौका नहीं मिला। उनका हिन्दी ज्ञान तो बिल्कुल ही सीमित है। इसीलिए हिन्दी की एक पुरानी कहावत 'पूत कपूत तो का धन संचय.........' उन्होंने नहीं। अन्यथा उद्धव के लिए अपना बुढ़ापा यों ख़राब नहीं करते।
कोई भी बता सकता है मराठी मानुस के नाम पर चल रही इस बकवास राजनीती में 'कुत्ता' प्रेमी राज ठाकरे (विधानसभा में अबू आजमी पर हमले वाले दिन राज ठाकरे की गोद में एक कुत्ता इठलाते देखा गया था) अपने चाचा बाल ठाकरे से काफी आगे निकल गये हैं। शुक्रवार को लोकमत के दफ्तर पर शिवसेना का ये हमला दरअसल 'बड़ा ठाकरे' कौन है यही साबित करने के लिए हुआ है। हाल में संपन्न हुए महारास्ट्र विधानसभा के चुनाव में करारी हार के बाद से ही बाल ठाकरे, राज ठाकरे को पछाड़ने लिए मचल रहे थे। दो दिन पहले ही बाल ठाकरे ने सचिन तेंदुलकर को मराठी से पहले ख़ुद को हिन्दुस्तानी कहने पर 'चाहेंट' लिया था। बाल ठाकरे ने जिस बात के लिए सचिन तेंदुलकर की निंदा की वो या तो जिन्ना मानसिकता का कोई ब्यक्ति ही कर सकता है या फ़िर कोई पागल।
ठाकरे के मुंह से निकलती ऐसी बकवास और उनके पालतुओं की ऐसी हरकत से साफ है महारास्ट्र की राजनीती में ठाकरे की कोई ओकात नहीं बची है। वोटर इनको पूछ नहीं रहा। चुनाव ये जीत नहीं पा रहे। अब ये तो सिर्फ़ सरकार की नपुंसकता है जो ये कभी सडकों पर ठेले-खोमचे-ऑटो वालों पर ताकत आजमाते हैं, कभी अमिताभ बच्चन के घर के सामने बोतलें फेंकते हैं, कभी रेलवे भर्ती परीछा में गये बच्चों को पीटते हैं, कभी विधानसभा में अबू आजमी से लड़ते हैं तो कभी लोकमत के दफ्तर पर हमला करते हैं।
ये भी साफ है कि ठाकरे पर लगाम कसने के लिए जनता और मीडिया द्वारा सरकार को दी जा रही 'शक्ति जागरण' ओसधियों का कोई असर क्यों नहीं पड़ रहा है। दरअसल सरकार और कांग्रेस को फिलहाल शिखंडी बने रहने में ही फायदा नज़र आ रहा है। 'जिन्हें' रोजगार के लिए सरकार के बाल नोचने चाहिए, बाल और राज ठाकरे ने उन्हें रोजगार दे रखा है। साथ ही मीडिया का पूरा ध्यान बेमतलब चाचा-भतीजा पर लगा है। सरकार को उसकी नाकामियों और जनता के असल सवालों पर घेरने वाला कोई है ही नहीं।
कुछ दिन पहले ही राज ठाकरे के विधायकों ने विधानसभा में अबू आजमी से हाथापाई की थी। आजमी को भी इससे फायदा ही हुआ था। लेकिन सवाल उठता है कि महारास्ट्र की राजनीती में कभी गंभीरता से नहीं लिए गये चाचा-भतीजा अचानक पागल क्यों हो गये हैं। 'मातुश्री' नाम के एक मकान में जिन्द्गगी के आखिरी पड़ाव पर आराम से दिन गुजार रहे बाल ठाकरे को रिटायरमेंट के बाद फ़िर से काम पर लौटना पड़ा है। जाहिर है बाल ठाकरे को समझ आ गया है कि शिवसेना की दुकान बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपना, उनकी गलती थी। नालायक उद्धव ने दुकान को बंदी के कगार पर पहुँचा दिया है। शिवसेना जैसी पुरानी दुकान से अच्छी तो राज ठाकरे की नई दुकान एम्एनएस चल पड़ी है। बेचारे बाल ठाकरे को बुढौती में दुकान पर बैठना पड़ रहा है। बहुत छोटी उमर से कम-धंधे में लग गये बाल ठाकरे को शायद पढ़ने का ज्यादा मौका नहीं मिला। उनका हिन्दी ज्ञान तो बिल्कुल ही सीमित है। इसीलिए हिन्दी की एक पुरानी कहावत 'पूत कपूत तो का धन संचय.........' उन्होंने नहीं। अन्यथा उद्धव के लिए अपना बुढ़ापा यों ख़राब नहीं करते।
कोई भी बता सकता है मराठी मानुस के नाम पर चल रही इस बकवास राजनीती में 'कुत्ता' प्रेमी राज ठाकरे (विधानसभा में अबू आजमी पर हमले वाले दिन राज ठाकरे की गोद में एक कुत्ता इठलाते देखा गया था) अपने चाचा बाल ठाकरे से काफी आगे निकल गये हैं। शुक्रवार को लोकमत के दफ्तर पर शिवसेना का ये हमला दरअसल 'बड़ा ठाकरे' कौन है यही साबित करने के लिए हुआ है। हाल में संपन्न हुए महारास्ट्र विधानसभा के चुनाव में करारी हार के बाद से ही बाल ठाकरे, राज ठाकरे को पछाड़ने लिए मचल रहे थे। दो दिन पहले ही बाल ठाकरे ने सचिन तेंदुलकर को मराठी से पहले ख़ुद को हिन्दुस्तानी कहने पर 'चाहेंट' लिया था। बाल ठाकरे ने जिस बात के लिए सचिन तेंदुलकर की निंदा की वो या तो जिन्ना मानसिकता का कोई ब्यक्ति ही कर सकता है या फ़िर कोई पागल।
ठाकरे के मुंह से निकलती ऐसी बकवास और उनके पालतुओं की ऐसी हरकत से साफ है महारास्ट्र की राजनीती में ठाकरे की कोई ओकात नहीं बची है। वोटर इनको पूछ नहीं रहा। चुनाव ये जीत नहीं पा रहे। अब ये तो सिर्फ़ सरकार की नपुंसकता है जो ये कभी सडकों पर ठेले-खोमचे-ऑटो वालों पर ताकत आजमाते हैं, कभी अमिताभ बच्चन के घर के सामने बोतलें फेंकते हैं, कभी रेलवे भर्ती परीछा में गये बच्चों को पीटते हैं, कभी विधानसभा में अबू आजमी से लड़ते हैं तो कभी लोकमत के दफ्तर पर हमला करते हैं।
ये भी साफ है कि ठाकरे पर लगाम कसने के लिए जनता और मीडिया द्वारा सरकार को दी जा रही 'शक्ति जागरण' ओसधियों का कोई असर क्यों नहीं पड़ रहा है। दरअसल सरकार और कांग्रेस को फिलहाल शिखंडी बने रहने में ही फायदा नज़र आ रहा है। 'जिन्हें' रोजगार के लिए सरकार के बाल नोचने चाहिए, बाल और राज ठाकरे ने उन्हें रोजगार दे रखा है। साथ ही मीडिया का पूरा ध्यान बेमतलब चाचा-भतीजा पर लगा है। सरकार को उसकी नाकामियों और जनता के असल सवालों पर घेरने वाला कोई है ही नहीं।
साभार -- छपाक ब्लागस्पाट डाट काम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें